मित्रों हिन्दू धर्म में नागो को बहुत ही पवित्र माना जाता है। और यही कारण है की लोग इन्हे देवताओं के समान पूजते हैं। हिन्दू धर्म ग्रंथो में शेषनाग, वासुकि नाग, तक्षक नाग, कर्कोटक नाग, धृतराष्ट्र नाग, कालिया नाग, पिंगल, महा नाग, आदि नागो का वर्णन मिलता है। आज हम आपको इन पराकर्मी नागों के पृथ्वी पर जन्म लेने से सम्बंधित पौराणिक कथा के बारे में बताएँगे जिनका उल्लेख महाभारत के आदि पर्व में मिलता है।तो मित्रों आइये जानते हैं कैसे हुई नागो की उत्पति ?
नागों की माता
महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार सतयुग में दक्ष प्रजापति की दो सुन्दर कन्याएं थी-कद्रू एवं विनता। वे दोनों बहिने रूप-सौंदर्य से संपन्न तथा अदभुत थी। बाद में उन दोनों का विवाह महर्षि कश्यप जी के साथ हुआ । एक दिन महर्षि कश्यप अपनी उन दोनों पत्नियों को प्रसन्नतापूर्वक वर देते हुए कहा-तुममें से जिसकी जो इच्छा हो वह वर मांग लो। महर्षि की बात सुनकर कद्रू ने समान तेजस्वी एक हजार नागों को पुत्र रूप में पाने का वर माँगा। जबकि विनता ने बुद्धि शरीर तथा पराक्रम में कद्रू के पुत्रों से श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्र मांगे। विनता को पतिदेव ने अत्यंत अभीष्ट दो पुत्रों के होने का वरदान दे दिया। अपनी प्रार्थना के अनुसार वर पाकर दोनों बहिने बहुत प्रसन्न हुई। वरदान पाकर संतुष्ट हुई अपनी धर्म पत्नियों से महातपस्वी कश्यप जी ने कहा की तुम दोनों यत्नपूर्वक अपने-अपने गर्भ की रक्षा करना और वह वन में चले गए।
एक हजार नागों का जन्म
कुछ दिन पश्चात् कद्रू ने एक हजार और विनता ने दो अंडे दिए। दसियों ने अत्यंत प्रसन्न होकर दोनों के अण्डों को गरम बर्तनो में रख दिया। वे अंडे पांच सौ वर्षों तक उन्ही बर्तनो में पड़े रहे। तत्पश्चात पांच सौ वर्ष पूरे होने पर कद्रू के एक हजार पुत्र अण्डों को फोड़कर बाहर निकल आये,परन्तु विनता के अण्डों से उसके दो बच्चे निकलते नहीं दिखाई दिए। यह देख देवी विनता सौत के सामने लज्जित हो गयी। फिर उसने अपने हाथों से एक अंडा फोड़ डाला। फूटने पर उस अंडे में विनता ने अपने एक पुत्र को देखा,उसके शरीर का ऊपरी भाग पूर्ण रूप से विकसित एवं पुष्ट था किन्तु निचे का आधा अंग अभी अधूरा रह गया था।
विनता को मिला शाप
ऐसा माना जाता है की उस पुत्र ने क्रोध के आवेश में आकर विनता को शाप दे दिया की माँ ! तुमने लोभ के वशीभूत होकर मुझे इस प्रकार अधूरे शरीर का बना दिया,मेरे समस्त अंगो को पूर्णतः विकसित एवं पुष्ट नहीं होने दिया। इसलिए जिस सौत के लिए तुम्हारे मन में ईर्ष्या है उसी की पांच सौ साल तक तुम दासी बनी रहोगी। और माता यह जो दूसरे अंडे में तेरा पुत्र है वही तुझे दासी भाव से तुम्हे मुक्ति दिलवाएगा,किन्तु माता ! ऐसा तभी हो सकता है जब तू इस तपस्वी पुत्र को मेरी ही तरह अंडा फोड़कर अंगहीन या अधूरे अंगों से युक्त ना बना दोगी।इसलिए। अगर तुम अपने इस पुत्र को को विशेष बलवान बनाना चाहती है तो पांच वर्ष तक तुझे धैर्य धारण करके इसके जन्म की प्रतीक्षा करनी होगी। इस प्रकार विनता को शाप देकर वह बालक अरुण अंतरिक्ष में उड़ गया और वह सूर्यदेव के रथ पर जा बैठा और उनके सारथि का काम संभालने लगा। तदनन्तर समय पूरा होने पर सर्प संहारक गरुड़ का जन्म हुआ। भृगुश्रेष्ठ ! पक्षिराज गरुड़ जन्म लेते ही क्षुधा से व्याकुल हो गए और विधाता ने उनके लिए जो आहार नियत किया था,अपने उस भोज्य पदार्थ को प्राप्त करने के लिए माता विनता को छोड़कर आकाश में उड़ गये।
जब दासी बनी विनता
उसके बाद देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया। जिसमे एक उच्चैश्रवा नाम का श्वेत वर्ण अश्व उत्पन्न हुआ था। जिसे देखकर विनता ने कद्रू से कहा शुभे ! यह अश्वराज स्वेत वर्ण का ही है। तुम इसे कैसा समझती हो? तुम भी इसका रंग बताओ,तब हम दोनों बाजी लगाएंगी। तब कद्रू बोली बहिन ! इस घोड़े का रंग तो अवश्य सफ़ेद है किन्तु इसकी पूँछ को मैं काले रंग की मानती हूँ। आओ दासी होने की शर्त रखकर मेरे साथ बाजी लगाओ। यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं तुम्हारी दासी बनकर रहूंगी अन्यथा तुम्हे मेरी दासी बनना होगा। इस प्रकार वे दोनों बहिने आपस में एक दूसरे की दासी होने की शर्त रखकर अपने-अपने घर चली गयी और उन्होंने यह निश्चय किया की कल आकर घोड़े को देखेंगी।
घर जाकर कद्रू ने सोचा की कैसे भी करके वह विनता को अपनी दासी जरूर बनाएगी और यही सोचकर उसने अपने सहस्त्र पुत्रों को आज्ञा दी की तुम काले रंग के बाल बनकर शीघ्र घोड़े की पूँछ में लग जाओ जिससे मुझे दासी न होना पड़े। उस समय जिन नागो ने उसकी आज्ञा न मानी उन्हें कद्रू ने शाप दे दिया की जाओ पाण्डववंशी बुद्धिमान राजर्षि जन्मेजय के सर्प यज्ञ का आरम्भ होने पर उसमे प्रज्वलित अग्नि तुम्हे जलाकर भस्म कर देगी।
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इस प्रकार माता कद्रू ने जब नागो को शाप दे दिया तब उस शाप से उद्विग्न हो कर्कोटक नाग ने परम प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी माता से कहा माता तुम धैर्य रखो मैं काले रंग का बाल बनकर उस श्रेष्ठ अश्व के शरीर में प्रविष्ट हो अपने आपको ही इनकी काली पूँछ के रूप में दिखाऊंगा। यह सुनकर कद्रू ने पुत्र अपने पुत्र से कहा बेटा ! ऐसा ही होना चाहिए। तदनन्तर जब रात बीती,प्रातःकाल हुआ और भगवान सूर्य का उदय हो गया उस समय कद्रू और विनता दोनों बहिने बड़े जोश और रोष के साथ दासी होने की बाजी लगाकर उच्चैश्रवा नामक अश्व को निकट से देखने के लिए गयी।
उसके बाद नागों ने परस्पर विचार करके यह निश्चय किया की हमें माता की आज्ञा का पालन करना चाहिए। यदि इसका मनोरथ पूरा ना होगा तो वह स्नेहभाव छोड़कर रोषपूर्वक हमें जला देगी। यदि इच्छा पूर्ण हो जाने से प्रसन्न हो गयी तो वह हमें अपने शाप से मुक्त कर सकती है,इसलिए हम निश्चय ही उस घोड़े की पूँछ को काली कर देंगे।
नागों का छल
ऐसा विचार करके नागो वहां गए और काले रंग के बाल बनकर उसकी पूँछ में लिपट गए। उधर इसी बिच बाजी लगाकर आयी हुई दोनों सौतें और सगी बहिने पुनः अपनी शर्त को दुहराकर बड़ी प्रसन्नता के साथ समुद्र के दूसरे पार जा पहुंची।
वहां पहुंचकर विनता ने देखा की उस श्वेत वर्ण घोड़े का पूरा शरीर तो सफ़ेद रंग का था परन्तु उसकी पूँछ काली थी। यह देखकर विनता ने अपनी बहन से कहा कद्रू मैं तो बाजी हार गई और बाजी के शर्त के अनुसार आज से मैं तुम्हारी दासी हूँ। इतना कहकर फिर दोनों बहिने अपने घर को लौट आई। कुछ दिन पश्चात् विनता के दूसरे पुत्री गरुड़ का जन्म हुआ और बहुत ही बलशाली था और उसने अपने पराक्रम से अपनी माता को कद्रू के दासत्व से मुक्त करवाया। और बाद में विनता का यही पुत्र अपने तपस्या के बल से भगवान विष्णु का वाहन बना।