एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था जो भगवान शिव का परमभक्त था। वह ब्राह्मण रोज जब तक ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्यकर्मो से निवृत होने के पश्चात् भगवान शंकर का पूजन नहीं कर लेता, तब तक उसे चैन नहीं पड़ता था। पूजा से जो कुछ भी दान दक्षिणा में मिलता था उसी से वह ब्राह्मण अपना गुजारा करता था। इतना ही नहीं वह ब्राह्मण दयालु भी था। जब भी कोई जरूरत मंद मिल जाता, अपनी क्षमता के अनुसार उसकी सेवा करता था। इस कारण शिव के परमभक्त ब्राह्मण गरीबी का जीवन व्यतीत कर रहे थे।
उधर ब्राह्मण की इस दानी प्रवृति से उनकी पत्नी उससे चिढ़ती थी, किन्तु उनकी भक्ति परायणता को देख उनसे अत्यधिक प्रेम करती थी। इसलिए वह कभी भी उनका अपमान नहीं करती थी। साथ ही अपनी जरूरत का धन वह आस – पड़ोस में काम करके जुटा लेती थी।
समय बिताने के साथ मन्दिर में दान – दक्षिणा कम आने लगी, जिससे उस ब्राह्मण को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। घर की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होने के कारण ब्राह्मणी दुखी रहने लगी।
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इसी तरह दिन बीतने लगे। एक दिन महाशिवरात्रि का दिन आया। उस दिन भी ब्राह्मण हमेशा की तरह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्यकर्मो से निवृत होने के लिए नदी की ओर चल दिए।
सौभाग्यवश उसी समय उस रास्ते से माता पार्वती और शिवजी कहीं जा रहे थे। तभी अचानक से माता पार्वती की नजर ब्राह्मण पर पड़ी। आज ब्राह्मण महाशिवरात्रि को लेकर उतने उत्साहित नहीं थे, जितने की अक्सर हुआ करते थे। उसकी उदासी देखकर पार्वतीजी सब कुछ समझ गयी और शिवजी से बोली -स्वामी ! यह ब्राह्मण प्रतिदिन आपकी उपासना करता है फिर भी आपको इसकी चिंता नहीं है ! माता पार्वती की बात सुनकर शिवजी मुस्कुराये और बोले -देवी ! अपने भक्तों की चिंता मैं नहीं करूँगा तो कौन करेगा ! जिस पर माता ने शिवजी से कहा- पर स्वामी आपने अब तक उसकी सहायता क्यों नहीं की ?”यह सुन भगवान शिव ने कहा -देवी ! आप निश्चिन्त रहिये, अब तक उसने जितने बिल्वपत्र शिवलिंग पर चढ़ाएं है, वही बिल्वपत्रआज रात्रि में उसे धनवान बना देगा।
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इसके बाद पार्वतीजी और शिवजी वहां से आगे बढ़ गए किन्तु संयोग से उसी समय उस राह से एक व्यापारी गुजर रहा था। उसने छुप कर शिव – पार्वती की सारी बातें सुन ली। उसके बाद उसने सोचा की अगर बिल्वपत्र से ब्राह्मण धनवान हो सकता है, तो फिर मैं क्यों नहीं ? यही सोच वह ब्राह्मण के घर पहुँच गया और ब्राह्मण से बोला – “ पंडितजी ! आपने अब तक जितने भी बिल्वपत्र शिवपूजन में चढ़ाये है, वह सब मुझे दे दीजिए, बदले में मैं आपको 100 स्वर्ण मुद्राएं दूंगा।
व्यापारी की बात सुनकर ब्राह्मण ने अपनी पत्नी से पूछा तो वह बोली – “ पूण्य का दान ठीक तो नहीं, किन्तु दे दीजिए, हमें धन जरूरत है, पत्नी के कहने पे ब्राह्मण ने सारे बिल्वपत्र बोरे में भरकर सेठजी को दे दिए।उसके बाद बिल्वपत्रों का बोरा लेकर सेठजी मन्दिर पहुंचे और शिवलिंग पर चढ़ाकर वहीँ बैठ गया और धनपति बनने का इंतजार करने लगा। इंतजार करते – करते सेठजी को आधी रात हो गई। सेठजी चमत्कार देखने के लिए बहुत उतावले हो रहे थे। आखिर तीसरा पहर गुजरने के बाद सेठजी के सब्र का बांध टूट गया और क्रोध में आकर सेठजी शिवलिंग को झकझोरने लगे।तब एक मत्कार हुआ ! सेठजी के हाथ शिवलिंग से ही चिपक गये। उन्होंने बहुत प्रयास किया किन्तु हाथ हिले तक नहीं। थक – हारकर सेठजी शिवजी से क्षमा – याचना करने लगे।
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तब भगवान शिव ने सेठ से कहा लोभी सेठ ! जिस ब्राह्मण से तूने ये बिल्वपत्र ख़रीदे है उसे 1000 स्वर्ण मुद्राएं जाकर दे आओ तभी तेरे हाथ खुलेंगे।
प्रातःकाल जब ब्राह्मण पूजन के लिए आये तो देखा कि सेठ का हाथ शिवलिंग से चिपका हुआ है और वो रो रहा है। उन्होंने पूछा तो सेठ बोला – “ पंडितजी ! शीघ्रता से मेरे बेटे को 1000 स्वर्ण मुद्राए लेकर मन्दिर आने को कहिये।ब्राह्मण ने सेठ के बेटे को बुलाया और सेठ ने वह स्वर्ण मुद्राएँ ब्राहमण को दे दिया जिसके बाद वह मुक्त हो गया।
अब पार्वतीजी शिवजी से पूछती है, “हे नाथ ! आपने अब तक अपने भक्त को कोई धन नहीं दिया ?”
शिवजी बोले – “ देवी ! मेरे पास कहाँ धन है, जो दूंगा। किन्तु मेरा भक्त अब गरीब नहीं है।